Sunday, June 26, 2016

व्यंग्य

समस्याग्रस्त मांगू भैया

सुबह-सुबह मांगू भैया का फोन। हुक्मनामा आया- जल्दी से घर आओ। आशंकाओं से घिरे मैंने पूछा- क्या बात है भैया। इतनी...। बात-वात कुछ नहीं बस तुम आ जाओ। तुमसे एक समस्या पर मशवरा करना है। आवाज़ में घुड़की और चिंता दोनों थी। मैंने कहा- समस्या... मैं भला क्या सलाह... उधर बात सुने बिना फोन कट चुका था।

ये मांगू भैया थे। छोटे काका के मित्र। हम भाई-बहन और साथी उन्हें भैया ही कहते। बेगानी शादी में अब्दुल्ला की तर्ज़ पर देश की छोटी-बड़ी समस्याओं को लेकर खुद तो परेशान रहते ही दूसरों को भी करते। गली-मोहल्ला उनके सवालों से हैरान रहता। मझोला कद। सर सफाचट। सांवली रंगत। गोल से चेहरे पर मोटी अधपकी मूंछ। आंखों पर नए जमाने की ऐनक। पुराने जमाने के सेठों की तरह निकली तोंद। बंडी पजामा पहनावा। सर पर गांधी टोपी। कुल जमा उनका यह रूप और पहनावा उन्हें चिंतक का रूप प्रदान करता। फोन आया तो जाना भी ज़रूरी था।

शहर से कुछ दूर उनका ठिकाना। बाहर से पुरानी हवेली फिल्म जैसा उनका घर। आधुनिक सुविधाओं से लैस। मेरे पहुंचते ही चाय-नाश्ते लाने की आज्ञा प्रसारित हुई। अब दो घंटे से पहले छूटने वाला नहीं। वे बड़ी समस्या में हैं यह समझ गया। करता भी क्या... उन्हें टाल भी तो नहीं सकता था। चुपचाप अभिवादन किया। उनके सामने बैठ गया बलि के बकरे की भांति। खुशामदी मुस्कान के साथ बोले- आ गए। कैसे हो। मैंने मसोस कर कहा- ठीक हूं भैया। पर आप ये क्या सुबह-सुबह बुला भेजा।

मांगू भैया ने बिना मेरी फिक्र किए कहना शुरू किया- देखो, तुम पत्रकार टाइप आदमी हो सो मुझे लगा देश की इतनी बड़ी समस्या पर तुमसे ही बात करना ठीक रहेगा। संकोच भाव से मैंने कहा- क्या भैया आप भी... वे बोले- समस्या पर बात करूं या औपचारिकता का खेल खेलें...

मैंने सवाल किया- आखिर समस्या क्या है भैया...

उसी पर आ रहा हूं। माथे पर सलवट के साथ उनकी चिंता बाहर आना शुरू हुई। बात आगे बढ़ाई- देखो भाई, 65 सालों के देश के इतिहास में पहली बार कांग्रेस से इतर किसी पार्टी की स्पष्ट बहुमत वाली सरकार बनी है। मैंने कहा- यह बात तो है...

शांत भाव से उन्होंने कहा- पहले मेरी पूरी समस्या तो सुन लो फिर अपनी पत्रकारिता की बुहारी मारना। बोले- तो पहली बार ऐसी सरकार बनी है जो कांग्रेसविहीन सरकार है। लेकिन मेरी चिंता यह है कि सरकार के दो साल बाद भी समस्याएं वैसी ही हैं जैसी पहले हुआ करती थी।

मैंने बीच में पूछ लिया- क्यों भइया ऐसी क्या समस्या दिखाई दे रही है आपको... मांगू भैया गुस्साए- अरे तुम पहले समस्या तो सुन लो फिर जो कहना होगा कहना। तो सुनो, पहले महंगाई डायन थी आज विकास है। पहले भी कब्जे होते थे पर ऐसे नहीं कि दो घंटे के लिए धरना-प्रदर्शन के नाम पर मिली जगह पर कब्जा ही कर डालो। न केवल कब्जा करो, वहां लोगों को बसाओ, हथियार, असलहा-बारूद जमा करो और फिर सरकार को चुनौती दो। उनके चेहरे पर चिंता के भाव मक्खी की तरह भिनभिनाने लगे।

भइया, आप तो जामबाग वाले कामवृक्ष की बात कर रहे हैं। वह तो मानसिक बीमार बताया जाता है। बरसों पहले किसी गुरुदेव के साथ नौटंकी किया था। अब वह अपने को सुभाष चंद्र बोस का अवतार मानता है।

हां, हां उसी की बात कर रहा हूं। देखो इतना सब होता रहा और सरकार को भनक भी न हुई। सरकार के आंख-कान-नाक सब जुकामग्रस्त थे क्या। किसी ने इसे संज्ञान में नहीं लिया। उल्टे सालों पुराने इस मामले में हर जिम्मेदार अफसर ने मामले को पोसा-पाला। मांगू भैया ने एक ही सांस में इतना सब कह डाला। अब हांफने लग गए।

मैंने कहा- हां भैया। यह समस्या तो है। वे बोले-

भैया पहली बात शिकायत के बिना सरकार कार्रवाई नहीं कर सकती और न ही संज्ञान लेती है। जब तक दो-चार न मरें, मौतों पर हंगामा न हो सरकार को कुछ दिखाई नहीं देता। वह कामी कामवृक्ष खुले आम कब्जा कर रहा था तो शिकायत करने की हिमाकत आखिर करता कौन। अब वे रौ में आ चुके थे- यही यदि गरीब की झोंपड़ी हो या व्यापार बड़े नेताओं को छोड़ो प्रशासनिक अधिकारी संज्ञान ले कर हरकत में आ जाते हैं और उन्हें नेस्तनाबूद करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। यहां वह कामी कर रहा था तो इसमें किसी बड़े नेता या लॉबी का संरक्षण नहीं रहा होगा भला। ऐसी हालत में प्रशासन सोता रहे यह भी कोई बात हुईा। वे थोड़ा रुके। मेरी ओर निहारा। मेरी आंखों में प्रशंसा के भाव देख कर फिर बोले- अब कुछ बोलो न। बोलने की जगह पर बोलते नहीं और अब क्या हुआ तुम्हारी ज़ुबान को।

मुझे कहना पड़ा- भैया आप ठीक बोल रहे हैं संज्ञान तो लेना चाहिए था शासन-प्रशासन को। ऐसे में ही तो फिर न्यायालय को दखल देना पड़ता है सरकारी कामकाज में।

प्रसन्न मांगू भैया ने कहा- हां, अब कही न तुमने मौके की बात। लेकिन यहां भी तो एक पेंच है, वह यह कि जनता के नुमाइंदों को यह बात नागवार गुजरती है। कहते हैं कि कोर्ट सरकार के काम में दखलंदाजी करे। देखो न केंद्र के एक मंत्री ने बयान ठोक ही दिया कि कार्यपालिका का काम न्यायपालिका न करे।

मैंने कहा- हां भैया...

वे अपनी हाकंने में लगे हुए थे- हां ये नेता अपने ऊपर अंकुश क्यों भला चाहेंगे चाहे वे कुछ भी करें। बहुत से मामलों में अभी तक कोई निर्णय नहीं हो सका है- जैसे जनलोकपाल को ही लो। अन्ना हजारे ने जब पिछली सरकार के समय लोकपाल की बात छेड़ी तब तो आज के सत्तारूढ़ लोगों ने उन्हें भारी समर्थन दिया और आज जब वे सत्ता में काबिज हैं तो उनके कामकाज (भ्रष्टाचार के) को रोकने के लिए ऐसे किसी लोकपाल को यूं ही सर पर बिठाएंगे क्या।
मैंने उन्हें याद दिलाया- भैया हम कामवृक्ष वाले मामले में बात कर रहे थे। वे क्रोधित हुए। बोले- देखो तुम भी सरकार की तरह ही बात कर रहे हो। मुद्दे से भटकाने का काम कर रहे हो। मैं भटका नहीं हूं। मैं कहना चाहता हूं कि सरकार को ऐसे मामलों में सख्ती बरतना चाहिए। सरकार को चाहिए कि वह निरंकुश लोगों को पनपने ही न दे... लेकिन यहां तो मामला ही उल्टा है। वह खुद तो निरंकुश रहना चाहती है और दूसरों पर अंकुश चाहती है। सरकार को चाहिए कि ऐसे लोगों पर कार्रवाई करे, उनको गोली मार दे... ऐसे ही अपराधियों पर नियंत्रण हो सकेगा... सरकार हाय-हाय, सरकार मुर्दाबाद...


वे अब आपे से बाहर हो गए थे। अब उन्हें रोकना कठिन लगने लगा। चिंतन में उनकी आंखें बंद हो चुकी थी। कल्पना में ही वे जंतर-मंतर तक पहुंच चुके थे और सरकार के खिलाफ प्रदर्शन रैली में शामिल थे। यही मौका था मेरे लिए वहां से खिसकने का। चाय का इंतज़ार किए बिना ही वहां से निकल लिया। नहीं तो न जाने कितनी देर और उन्हें झेलना पड़ता।

व्यंग्य

सरकारी योजना

फिरतू मुझे शहर से बाहर के रास्ते पर मिल गया। मैं शहर की ओर आ रहा था। वह गांव की ओर लौट रहा था। मैं उससे बचने की फिराक में था। वह मुझे छोडने को तैयार न था। उसने अपनी 96 मॉडल लूना मेरी बाईक के सामने अड़ा दी। कहा- गांव से आए के बाद तुमन दिखेच्च नइ गा। मैं झेपा। बहाना बनाया। बोला- काम बहुत...

जुन्ना बात ल छोड़ बहाना झन बना। मेरी बात काट दी। उसने कहा- तैं नइ आएस, फेर हमर जमीन के काम बन गिस। ए दरी मोर चिंता दूसर हे। मैंने राहत की सांस ली। सोचा बच गए। मेरा प्रश्न- अब किस चिंता में पड़ गए फिरतू तुम ! उसकी मुख मुद्रा गंभीर हुई। कहने लगा- पैदा होए से ले के मनखे के मरत तक के सबो काम ल अब सरकार करत हे।

मैंने कहा- अच्छी तो बात है। कल्याणकारी सरकार है। अब तो बस जीने का काम ही आदमी का रह गया है। उसने मुझे घूर कर देखा। कच्चा चबा जाने वाली निगाहों से। मैंने और कुछ कहने की हिम्मत नहीं की। यहीच्च तो चिंता के बात हो गे हे। चिंतित फिरतू ने कहा। अइसनेच्च म तो आदमी काम धाम करे बर बंद कर देवत हे। ओती खेती-किसानी बर मजदूर के अकाल हो गे हे। एक तरफ मौसम के मार अऊ दूसर तरफ मजदूर के दिक्कत। एकर उप्पर करेला म नीम चघ गे हे किसान के करजा।

उसकी बात में वजन था। मैंने कहा- बात तो तुमने पते की कही फिरतू। एक तरफ आदमी कामचोर बन रहा और दूसरी तरफ किसानों के किसानी काम के लिए मजदूर नहीं मिल रहे तो शहरों में भी काम करने के लिए कामगार नहीं मिल रहे। सरकार की कल्याणकारी योजना अकल्याणकारी बन रही है।

फिरतू की चिंता अब चिंतन में बदल गई। बोला- यहीच्च तो चिंता के बात हे। फेर सरकार जनता के कल्याण बर जतका स्कीम चलावत हे ओ ह मनखे बर जंजाल बनत जात हे। फेर ये सब के ठेका बेपारी मन ले दे जाथे। सरकार के अइसन काम से बेपारी के पौबारा होवत हे अउ बाकी सब ठन ठन गोपाल। बेपारी मन जतका काम करैं नइ ओकर से डबल भ्रष्टाचार करथें। सरकारी बाबू-अफसर मन संग सांठगांठ करके पइसा घलो खाथें अउ घटिया सामान के सप्लाई करथें। यही चलन हो गे हे। उसका चिंतन जारी था। यह देख मैंने बीच में बोलने की हिम्मत नहीं की,  एकर उप्पर जिनिस के भाव आसमान म जात हे। करजा म बूड़त जात हे का किसान, का आम आदमी। सबके हाल एके बरोबर हो गे हे। मैंने सहमति में केवल हुंकारी दी।

बातों का रूख मोड़ते हुए मैंने कहा- अब देखो न फिरतू, सरकार ने बच्चों की सेहत के लिए पौष्टिक दूध देने की योजना बनाई और उसे पी कर दो बच्चों की जान चली गई और कई बच्चे गंभीर हो गए।

फोक्कट फालतू बीच म झन बोले कर तैं। फिरतू ने डपटते हुए कहा। मैंने डर कर फिर से चुप्पी कायम कर दी। व्यवधान पर वह नाराज़ हुआ। बोलने के लिए मेरे मुंह से बोल ही नहीं फूटे। जवाब में उसने कहा- सरकार डेयरी खोले के काम ल कर दिस। अब उत्पादन करइया अउ सप्लाई करइया मन का करत हें तेला सरकार कइसे जान सकत हे ! इतना कहते फिरतू के गाल उत्तेजना से लाल हो गए। उसके नथुने फूल गए। शरीर से पसीना निकलने लगा।

तो तुम्हारा मतलब है, दूध बनाने वाले या देने वाले की कारस्तानी है ? मैंने पूछ लिया।

अपनी रौ में फिरतू ने उत्तर में कहा- अउ नइ तो का ? देख भई ठाकुर, सरकार अपन काम ल कर दिस रोजगार के बेवस्था करे बर। ठीक। अब ओकर सप्लाई करे बर तो एजेंट बनाए गे हे न। एजेंट के भी कारस्तानी हो सकत हे न।

मैं हतप्रभ था फिरतू की सोच पर। बोला- बात समझ में नहीं आई फिरतू। ज़रा खुल कर बोलो।

का तैं सहर के रहइया हस भाई। अतेक छोटे बात तोला नइ समझ म आत हे। मेरी बुद्धि पर तरस खाते हुए फिरतू ने कहा। उसने समझाया- देख सरकार ह एजेंट बनाए हे न। मैंने हामी भरी। वह बोला- येदे एजेंट, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता अउ अफसर मन के सांठगांठ से ए कारस्तानी हो सकत हे के नई ए लापरवाही ह। भ्रष्टाचार कारस्तानी दूसर के अउ बदनाम होइस सरकार। वहू फोक्कट फालतू। 

मैं कुछ कह न सका। चुप ही रहा। मेरी चुप्पी देख उसने आगे कहा- सरकार कइसे जान डारही सबके सांठगांठ ला। बिना शिकायत अउ दुर्घटना के सरकार कइसे संज्ञान ले लिही। भगवान सब जान सकत हे, फेर सरकार भगवान तो नई हे न।


चुप्पी ओढ़े मैंने आगे बढ़ जाने में ही अपनी भलाई समझी और पतली गली से निकल लिया।

व्यंग्य

रसूख का व्यापार

मेरे मित्र के एक मित्र हैं फिरतू। रहते गांव में हैं लेकिन खबर पूरे शहर की रखते हैं।

मेरे मित्र ने उनकी बड़ी तारीफ कर रखी थी सो मैं उनसे मिलने के लिए उनके गांव चला गया। पहले कभी मिला नहीं था सो मैंने फिरतू को अपने मित्र के मित्र के रूप में अपना परिचय दिया। वह एकदम चहक उठा। उसने कहा- तहूं पत्रकार हस। मैंने जवाब दिया नहीं तो। मैं तो उनका मित्र हूं बस। मेरा एक छोटा सा व्यापार है।

वाह। फिरतू ने खुश होते हुए कहा- तैं बेपारी हस त एक ठन बेपार हम ल सुरु करे बर हे। बने होइस आप मन आ गेएव। हम ल आइ़़डिया देवव। काम ल कइसे कर के सुरू करे जाए। मैं सकपकाया, कंप्यूटर का काम करने वाला छोटा सा दुकानदार यह जाने किस व्यापार की बात करे। फिर भी अपने शहरी होने के दंभ में मैंने हामी भर दी।

फिरतू बताने लगा- देख भाई खेती बाड़ी म अब कुछु नई रह गे हे फेर बेपार छोटे होही तभो ले रोजी रोटी चल जही। मैं जेन बेपार ह के बात करत हों ओ एकदम छोट अकन हे। हम ल एक ठन जघा चाहिए। मेरा सवाल- क्या करने का विचार है आपका। फिरतू भड़क गया। उसने कहा- टोका टाकी झन कर तैं पहिली पूरा बात ल सुन ले समझ ले फेर कुछु बोलबे। मैं सहमा। चुप रह गया। फिरतु आगे बढ़ा- भइया हम ल एक ठन कांप्लेक्स खड़ा करे बर हे। मैंने हुंकारी भरी। उसने कहा- हम ल एक ठन सरकारी नजूल जमीन चाही। एकर उप्पर एक शर्त हे जमीन ह तरिया किनारे या नदी किनारे होही त बढ़िया। मैंने कहा- सरकारी जमीन पर तो रसूखदार लोग ही कब्जा कर सकते हैं। उसने चट जवाब दिया- एकरे कारण तो तोला कहत हन। हम गांव-गंवई के रहइया हन। हम ल जमीन के पता लगाय म टाइम भी लगही अउ पइसा घलो जाही। आप मन सहर के रहइया हो। सब चतुराइ अउ आदमी मन ल जानत होहु। मैं हैरान रह गया उसके इस अंदाजे पर। मित्र ने बताया ही था कि फिरतू से बच के रहना वह बहुत सी जानकारी रखता है। शहर में किसने कहां कब्जा किया किसने क्या गोटी फिट की और कहां जा बैठा। उसे इस बात का बखूबी अंदाजा था कि शहर में रहने वाला है तो हमारे काम आ सकता है।

फिरतू के एक ही डपट से मैं घबराया हुआ था, सो धीरे से कहा- भाई मैं कोई चतुराई नहीं जानता। आम आदमी हूं। और सरकारी लोगों से तो दूर ही रहता हूं, जाने कब किस बात के पैसे मांग लें और न ही नेताओं से मेरी कोई पहचान है। वह नहीं माना। बोला- फोक्कट फालतू बात झन कर तैं। सहर म रहत हस त हम गांव वाला मन ल एकदमेच गंवार समझत हस का ? मैं अब बुरी तरह घबरा गया था। जाने फिरतू और क्या कहे सो बात को आगे बढ़ाया। बोला- चलो ठीक है फिरतू मैं तुम्हारा काम करने की कोशिश करूंगा। आगे तो बताओ...।

फिरतू हंसा। बोलने लगा- अब आएस न लाइन म। सोझ बात करत हों त तैं मोला झंगलू झंटू झन समझ। हां त मोर पिलान हे के जमीन कम से कम दू एकड़ होना चाही अउ जादा हो सकत हे तो पांच एकड़ तक चल जाही। मैंने सवाल दागा- जमीन का मान लो हो गया तो आगे का क्या, क्या होगा व्यापार और कैसे होगी कमाई। फिरतू मेरी नादानी पर खल टाइप की हंसी के साथ आगे बढ़ा- कुछु नहीं गा। पहिली हमन उहां एक ठन भव्य मंदिर बनाबो। ओकर बर एक ठन नेता के तरीका ल अपनाबो। मेरा सवाल- क्या ? एक ठन ट्र्स्ट बना लेबो अउ मंदिर चारों तरफ दुकानेच दुकान बना देबो अउ ओला बेच के हमू करोड़पति बन जाबो।

मैंने कहा- ये सब रसूख वालों का काम है हम तुम यह सब नहीं कर सकते। उसने तपाक से कहा- इहीच तो कारन हे के मैं आप मन ल बोलत हों। उसकी बात की काट नहीं मिलने पर मैंने पूछा- किसी ने कोर्ट में केस कर दिया तो...

उसने झट कहा- कोरट के डिसीजन होवत त हमन नेतागिरी करे लग जाबो। फेर जब फैसला आही तब तक त हमन सेटिंग करके कोई बढ़िया जगह म पहुंच जाबो। फेर हमर कोई कुछु नहीं बिगाड़ पाही।

मैंने कहा- फिर भी...

आगे उसने तुरुप का पत्ता रखते हुए कहा- देख भाई सबो जानत हें के नदी के एपार बन गे हे। हमन नदी के ओप्पार बनाबो। ओ इलाका ह दूसर जिला म हो जाही त हमन ल कब्जा करे म आसानी हो जाही न गा। ए पार लफड़ा चलत हे हमन ओपार बनाबो।


फिरतू की बात सुन कर मेरे दिल की धड़कन बढ़ने गई और मुझे लगा कि अब ज्यादा देर रुका तो अपनी लायजनिंग का काम वह मुझसे करवा कर ही दम लेगा। मैंने तुरंत अपनी मोटर सायकल स्टार्ट की और वहां से भाग खड़ा हुआ।

प्रतिभा

जोबी हथेलियों में हौसले की लकीरें...

आलराउंडर जोबी मोटीवेशनल स्पीकर भी हैं

जन्म से ही शरीर से बाधित किसी इंसान की उड़ान क्या हो सकती है इसकी क्या कल्पना आप कर सकते हैं ?
आइए जानें उस शख्स के बारे में जो जन्म से विकलांग होने के बावजूद पंजा कुश्ती में जापान, स्पेन, इजिप्त, इज़रायल जैसे देशों में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके जोबी मैथ्यू के बारे में...
प्रदेश में आयोजित 40वीं राष्ट्रीय पंजा कुश्ती प्रतियोगिता में भाग लेने आए जोबी ने कांस्य पदक हासिल किया। उन्हें देख कर सहसा यकीन ही नहीं होता कि वह न केवल पंजा कुश्ती के खिलाड़ी हैं वरन् बैडमिंटन, गोला फेंक, तैराकी, व्हीलचेयर टेबल टेनिस जैसे खेलों में भी महारत रखते हैं।
जोबी ने अब तक जापान में 2005 में विश्व पंजा कुश्ती चैम्पियनशिप में एक स्वर्ण पदक, दो कांस्य पदक जीते, 2008 में स्पेन में सामान्य तथा फिजीकली चैलेंज्ड वर्ग में एक स्वर्ण और एक रजत पदक, 2009 में इजिप्त में दो रजत पदक, 2012 में तेलअवीव में 12 पदक हासिल किए थे इनमें 2 स्वर्ण, 6 रजत तथा 4 कांस्य पदक 2012 में ही स्पेन में सामान्य वर्ग में रजत पदक और विकलांग वर्ग में स्वर्ण पदक, साल 2014 में पंजा कुश्ती विश्व चैम्पियनशिप में 2 रजत पदक हासिल किए। इसके अलावा 2013 में अमेरिका में पैरालिम्पक खेलों में शामिल हो चुके हैं जोबी। 2014 में पोलैण्ड में संपन्न पहली पंजा कु्श्ती विश्व प्रतियोगिता में दो रजत पदक भी हासिल किए हैं उन्होंने।
है न कमाल का खिलाड़ी जिसके हौसले ने शरीर की तमाम बाधाओं को हराकर दुनिया भर में अपना और देश का नाम रौशन किया है।
अब जानें 1976 में केरल के अडुक्कम गांव में जन्मे इस अद्भुत खिलाड़ी की इस ऊंची उड़ान की शुरुआत के बारे में और कैसे हासिल किया यह मुकाम...
जोबी ने बताया कि अपने गांव वही एक इकलौते विकलांग थे। केरल के गांव में ही प्रायमरी और हाईस्कूल तक की पढ़ाई की। उनका स्कूल गांव से 12 किलोमीटर दूर था और वे यह दूरी पैदल ही नापते थे। स्कूली दिनों को याद करते हुए वे बताते हैं कि उनकी स्कूल का फुटबाल के खेल में पूरे इलाके में नाम था। जब दूसरे साथी फुटबाल खेल रहे होते तब वे मैदान के बाहर से उन्हें चीयर किया करते थे।
पंजा कुश्ती की शुरुआत के बारे में जोबी कहते हैं कि जब भी उनकी स्कूल की टीम कोई मैच जीत कर आती तो वे उन्हें पंजा लड़ाने की चुनौती देते। कोई भी खिलाड़ी उन्हें इस खेल में हरा नहीं पाता था। यही शौक आगे चल कर उनका खेल बन गया। वे बताते हैं स्कूली दिनों में उन्हें पंजा कुश्ती के खेल के बारे में मालूम नहीं था। उन्हें इसके बारे में 10वीं के बाद पता चला। एक मजेदार वाकया याद करते हुए जोबी ने बताया कि जब वह एक जिम में गए तब जिम के प्रशिक्षक ने उन्हें वहां से यह कह कर वापस कर दिया कि तुम कुछ नहीं कर पाओगे। लेकिन पंजा कुश्ती व अन्य खेलों में लगाव के कारण आज वे इस मुकाम तक आ पहुंचे हैं।
अपने भारतीय होने पर गर्व करने वाले जोबी ने देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी काफी उम्मीदें हैं। उन्होंने कहा कि मोदी ने मन की बात में कहा था- खिलाड़़ी देश की संपत्ति । भारत में 63 प्रतिशत युवा हैं और इस कारण हम खेलों में विदेशों में जीत सकते हैं। जोबी ने नरेन्द्र मोदी के इन शब्दों पर पूरा विश्वास जताया।  
हंसी हंसी में जोबी ने बताया कि लोगों का जन्म प्रमाण पत्र सबसे पहले बनता है लेकिन उनका सबसे पहला प्रमाण पत्र विकलांगता का बना था और आज वे सामान्य विकलांग के रूप में ही नहीं सामान्य वर्ग में वे विश्व चैम्पियन बने। पंजा कुश्ती में सामान्य और विकलांग वर्ग को स्पष्ट करते हुए बताया कि दाएं हाथ से विकलांग वर्ग में और बाएं हाथ से सामान्य वर्ग में खेला जाता है।
अमेरिका के मिशीगन में डॉर्फ (1.40 सेमी से कम ऊंचाई) ओलिंम्पिक में भाग लिया था जिसमें दुनिया और भारत में पहली बार 5 गोल्ड मेडल जीते थे। जोबी ने यहां डिस्कस थ्रो व शाटपुट में 3 तथा बैडमिंटन सिंगल व डबल्स 2 गोल्ड मैडल जीते। यह पहला और एकमात्र अवसर है जब पांच मैडल्स डॉर्फ ओलिम्लिक में भारत ने हासिल किए। पंजा कुश्ती डॉर्फ ओलिम्पिक में अभी शामिल नहीं हुआ है।
जोबी ने बताया कि पहली विकलांग पंजा कुश्ती की पोलैंड में संपन्न विश्व चैम्पियनशिप में 2 रजत पदक उन्होंने हासिल किया।

अब जानते हैं उनके जीवन के दूसरे पहलुओं के बारे में। जोबी विवाहित हैं। जोबी विवाहित हैं। उनकी पत्नी डॉ. मेघा एस. पिल्लई क्लासिकल डांसर हैं जो कि हिंदू हैं जबकि जोबी इसाई। उनके दो पुत्र है- 7 वर्ष के ज्योदिस तथा 9 महीने के विद्युत। जोबी भारत पेट्रोलियम में कोच्चि में सहायक प्रबंधक हैं साथ ही वे एक मोटिवेशनल स्पीकर भी हैं। जोबी बताते हैं कि उन्होंने अनेक संस्थानों के साथ कार्पोरेट कंपनियों में मोटीवेशनल स्पीच किये हैं। 

Friday, May 2, 2014

सफाई व्यवस्था पर जरूरी है जागरूकता

पीलिया फैलने के बाद रायपुर में धरना दिया गया। संगवारी मित्र भाई गिरीश मिश्रा ने अपील भी की थी लोगों से धरने में शामिल होने की थी। पीलिया की वजह दूषित जल है। यह भी ठीक है कि निगम का ध्यान आकर्षित करने के लिए धरना ज़रूरी है। पर नगर निगम में जनता के प्रतिनिधि अधिकारियों के सर ठीकरा फोड़ते हैं और अधिकारी सफाई कंपनी पर जुर्माना ठोंकने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पाते। सफाई कर्मियों का आलम यह है कि वे सफाई करते कम और सुस्ताते ज्यादा दिखाई देते हैं। एक महत्वपूर्ण बात पर मैं भी सबका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा। वह यह कि सफाई कर्मचारियों के बारे में कल रात एक सज्जन ने कहा पहला तो एक तो वे कभी-कभार दिखाई दे जाते हैं पर सफाई करते हुए नहीं बल्कि किसी पेड़ की छांव में आराम फरमाते या किसी चाय की दुकान पर चाय पीते या नाश्ता करते हुए। उनका कहना था लोग उन्हें अतिरिक्त पैसे भी दे देते हैं ताकि वे उनके घरों के आसपास सफाई कर दें। उनकी शिकायत थी कि पैसे देने के बाद भी वे सफाई किए बिना भाग खड़े होते हैं। यह हुई एक बात। दूसरे शहर में यहां वहां कचरा फेंकते लोग दिखाई दे जाते हैं। यहां तक कि कोई देखे नहीं इसके लिए लोग रात ग्यारह-बारह बजे के बाद जहां कहीं खुला मैदान या कचरा डालने लायक जगह दिखती है कचरा डालने से नहीं चूकते। यदि जगह आसपास नहीं हुई तो बाकायदा दुपहिया वाहनों में कचरे के पैकेट रख कर ऐसी जगहों पर डालने जाते मैंने लोगों को देखा है। आरडब्लूएमपीएल की ओर से कचरा डालने के लिए घर-घर डस्ट बिन दिया गया है। बावजूद इसके लोग ऐसा करते हैं। पूछने पर पता चला कि कचरा उठाने के लिए सफाई कर्मचारी कई-कई दिन तक नहीं आते हैं। यह भी एक सच है। मेरी गली मेरी पहल के कारण सड़क तो साफ-सुथरी रहती है, लेकिन नाली की सफाई हुए दो महीनों से ज्यादा हो गए हैं। पूरी नाली भर गई है। ऐसे में मेरी गुजारिश है कि संगवारी समूह के लोग यदि लोगों को जागरूक करने के लिए समय निकालें और सफाई कंपनी के कर्मचारियों को सफाई करने के लिए प्रेरित करें तो सफाई की समस्या के निराकरण की दिशा में एक ठोस पहल होगी और बीमारियों से भी बचाव होगा। मैं इसके लिए समय देने को तैयार हूं। कहिए क्या कहते हैं आप ?

Monday, December 6, 2010

पेंशन के खिलाफ छत्तीसगढ़ के किन्नर

देश की राजधानी दिल्ली के निगम ने ले ही किन्नरों के सम्मानजनक गुजारे के लिए उन्हें पेंशन देने का फैसला कर लिया है लेकिन छत्तीसगढ़ के किन्नर इस फैसले के खिलाफ हैं। किन्नरों का कहना है कि पेंशन पाने के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है। छत्तीसगढ़ के किन्नर सरकार द्वारा जमीन दिए जाने के बाद खुश हैं। उनका कहना है कि सरकार ने जमीन संबंधी उनकी मांग को काफी पहले ही पूरा कर दिया था।

हा ही में दिल्ली नगर निगम ने 18 साल से अधिक आयु के किन्नरों को एक हजार रुपए प्रतिमाह पेंशन देने का फैसला किया है। निगम का यह मानना है कि पेंशन सुविधा का सबसे ज्यादा ला उन किन्नरों को होगा जो उम्र की ढलान पर हैं। दिल्ली नगर निगम के इस फैसले का देश के विभिन्न हिस्सों में मौजूद किन्नरों ने स्वागत किया है। लेकिन छत्तीसगढ़ के किन्नर फैसले के खिलाफ हैं। छत्तीसगढ़ किन्नर समाज की सचिव ज्योति का कहना है कि सरकारी पेंशन पाने के लिए काफी खानापूर्ति करनी पड़ती हैं। वे किन्नर जो जगह-जगह घूम-घूमकर अपनी अजीविका चलाते हैं उन्हें लाइन लगाकर पेंशन लेना गवारा नहीं होगा। छत्तीसगढ़ का कोई भी किन्नर पेंशन के लिए धक्के नहीं खाएगा। दिल्ली के किन्नरों को मिलने वाला पेंशन उन्हें मुबारक हो। ज्योति ने बताया कि सरकार ने उनके समाज को काफी पहले ही जमीन की सुविधा मुहैय्या करा दी थी। राजधानी लाभांडी के एक बेशकीमती इलाके में जमीन मिल जाने से ज्योति बेहद खुश है। ज्योति का कहना है कि रमन सरकार ने जमीन देकर किन्नर समाज की दुआएं ले ली है। किन्नर समाज की मुखिया भुल्लो नायक मानती हैं कि यदि भी गुजारे के लिए कोई समस्या खड़ी हुई तो पेंशन के बारे में सोचा जा सकता है लेकिन हाल फिलहाल छत्तीसगढ़ के किन्नर नाच गाकर बेहतर ढंग से अपनी गुजर-बसर कर रहे हैं। एक अन्य किन्नर राधिका ने कहा कि गरीबों को दिए जाने वाले पेंशन में ही बहुत सी बाधाएं खड़ी होती हैं। जिन्हें पेंशन मिलना चाहिए उन्हें पेंशन नहीं मिलता और जो पेंशन के पात्र नहीं होते उन्हें पेंशन हासिल हो जाती है। राधिका ने कहा कि उनका समाज भी भी सरकार से पेंशन की मांग नहीं करेगा। दीपावली के बाद किन्नर जगह-जगह घूम-घूमकर लोगों को दुआएं दे रहे हैं। इन दुआओं के एवज में उन्हें अच्छी खासी बख्शीश भी मिल रही हैं। छत्तीसगढ़ में यह सिलसिला पुन्नी मेले तक जारी रहेगा। प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में लग 400 किन्नर चिन्हित किए गए हैं। रायपुर में कुल दो दर्जन किन्नर है। ये किन्नर जिनमें राखी, सपना, कमलाबाई, विमलाबाई मनोरमा आदि शामिल हैं वे अपने रण पोषण के लिए तिल्दा, सिमगा भाटापारा, कवर्धा तक में भी घूमते हैं।

बहुरूपियों से बचने की सलाह

किन्नरों ने प्रदेशवासियों को दीपावली की शुकामनाएं दी है। समाज की सचिव ज्योति ने छत्तीसगढ़ के लोगों दयालु बताते हुए प्रदेश की चहुंमुखी तरक्की की कामना की है और कहा गरीबों को पेंशन मिल जाए यह हमारी दुआ है। किन्नरों ने लोगों को बहुरूपियों से बचने की सलाह भी दी है।

तो लीजिए अब शुरू करता हूं ब्लॉगिंग...


मेरे एक दोस्त हैं रमेश शर्मा जो सहारा में छत्तीसगढ़ के ब्यूरो हेड हैं। हम दोनों लगभग साथ शुरू हुए थे लेकिन वे दिल्ली चले गए, मैं पत्रकारिता से बाहर। छत्तीसगढ़ अंचल के राज्य बन जाने के बाद जब वो लौटे तो मुझे सीधा सहज सवाल दाग दिया क्यों छोड़ दी यार पत्रकारिता। फिर पत्रकारिता में घसीटने के लिए जोड़ लिया अपने साथ स्ट्रिंगर के तौर पर। फोटो भी खिंचवाई, लिखवाया भी।
कम्प्यूटर की थोड़ी-बहुत जानकारी मुझे है, सो रमेश एक अरसे से जुटे हैं कि मैं ब्लॉग-लेखन करूं। जयप्रकाश मानस भी ने भी इससे पहले ही कहा था।
वैसे यह ज़रूर है कि मुझे समाचार और साहित्य की दुनिया के साथ जोड़ कर रखे रहने वालों में गिरीश पंकज, सुधीर शर्मा, जयप्रकाश मानस का बड़ा हाथ है। ये होते तो शायद और कहीं रोजी-रोटी की जोड़-जुगत में लगा रहता मैं और शायद इन तमाम बातों से कोई मतलब भी रखता।
बदलती परिस्थितियों में राजकुमार सोनी अपने साथ हरिभूमि ले आए और अपने साथ लगा लिया है।
तो लीजिए अब शुरू करता हूं ब्लॉगिंग...
मेरा यह भोला भाला छत्तीसगढ़ अंचल पहले मध्यप्रदेश का हिस्सा हुआ करता था अब राज्य बन गया है लेकिन बदलता बहुत कुछ दिखा नहीं। स्थितियां भी पहले की तरह ही हैं। (तथ्यों की दुकान नहीं लगाऊंगा लेकिन अपनी बात जरूर कहना चाहूंगा। शायद आप कुछ तथ्य निकाल लें)
अभी हाल ही मेरे इस अंचल याने प्रदेश में एक बड़े मीडिया ग्रुप ने दस्तक दी है।
नाम ही सुन रखा था इस ग्रुप का, लेकिन जानता कुछ भी नहीं था। कई बातें चली जिनमें से एक यह थी किसी ने बताया कि पुलित्ज़र विजेता है वह। लगा, चलो अच्छा ही है। फिर एक सवाल भी दिखाई दिया कहां हैं रायपुर की आवाज़ उठाने वाले... कब तक आप शहर के ट्रैफिक में रेंगते रहेंगे। यह सवाल पहले से काम कर रहे पत्रकारों की कार्यशैली पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।
बहरहाल, मेरे ख्वाबों की दुनिया सज गई कि अब इस प्रदेश में कोई समस्या ही नहीं रह जाएगी। कोई जादुई छड़ी या अलादीन का चिराग लिए कोई चला रहा है कि अब पलक झपकते हो जाएंगी मेरे शहर, मेरे अंचल, मेरे प्रदेश की समस्याएं उड़न छू...!
और आखिरकार वह भी गया। एक मीठा-सा ख्वाब टूट कर बिखर गया। मेरे इस प्रदेश के हालात ज्यों के त्यों बने हुए हैं। सब कुछ वैसा ही है जैसा पहले था।
आने और शुरू होने के बीच कई तरह की बातें सुनाई देती रही। कोई कहता बड़ी लकीर खींच देगा तो कहीं कुछ और बात होती। लेकिन यह तो मात्र व्यापार का विस्तार साबित हुआ और किसी विशेष मीडिया समूह को सबक सिखाने और उसकी मांद में सेंध लगाने का उपक्रम।
मेरे मन में सवाल ही सवाल थे लेकिन जवाब कुछ भी नहीं। बहरहाल एक बात पूरी तरह साफ है कि चाहे जिस भी कारण से उस मीडिया ग्रुप ने इस प्रदेश में एंट्री ली हो, उसकी मंशा प्रदेश के हालात बदलना तो कतई दिखाई नहीं
इस मीडिया ग्रुप को यहां लंबा पत्रकारी इतिहास टटोलने की आवश्यकता नहीं, राज्य बनने के बाद के क्फे में अनिल पुसदकर ने दैनिक भास्कर में एक रिपोर्ट छापी थी जिस पर प्रदेश के कद्दावर कांग्रेस नेता विद्याचरण शुक्ल ने हस्तक्षेप कर सीएसईबी खेदामारा प्लांट की 20 करोड़ की संपंत्ति को मध्यप्रदेश ले जाने से बचा लिया गया था।
नेट पर लिखे गए एक लेख का जिक्र करना भी यहां मुनासिब लगता है। यह शुभ्रांशु चौधरी ने नेट पर लिखा था, शीर्षक था – The Art of Not Writing in Chhattisgarh शीर्षक से ही स्पष्ट हो जाता है आलेख के बारे में।
अब यदि वह पत्र सादगी से आकर यहां की संस्कृति, यहां की समस्याओं से घुल-मिलकर अपनी घुसपैठ बनाता और फिर तदबीर, तकदीर और तस्वीर बदलने की बात करता तो कुछ बात भी होती।
लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सत्य है कि उस पत्र के जाने से प्रदेश में पहले से काम कर रहा मीडिया कुछ सतर्क जरूर हो गया है। अब उम्मीद बंधती है कि इस प्रदेश में नेता-अफसरों की मनमानी पर कुछ अंकुश तो लग सकेगी। मीडिया जायन्ट्स की आपसी लड़ाई के चलते प्रदेश का कुछ भला होने की भी उम्मीद दिखाई देती है।
अब आने वाले समय में मेरी कोशिश होगी कि विभिन्न विषयों पर सार्थक कुछ लिखूं